सोमवार, 25 जनवरी 2010

गणतंत्रोत्सवः एक मंत्र कविता

इस गणतन्त्र में
गण के तन्त्र को नमस्कार है

तन्त्र की शक्ति
गण की भक्ति
विकास की तख्ती में
चढ़े हुए रंगों को नमस्कार है

इस व्यवस्था, तन्त्र में
लोकसभा में
उखाड़े गये माईक और
कुर्सियों को नमस्कार है
विधानसभा पटल पर
रखे गये रिश्वत के नोटों को नमस्कार है

हर पाँच साल में
वोटरों द्वारा पी गई दारू,
कम्बल और साड़ियाँ,
नोट और वोट दोनों को नमस्कार है

जनता की सेवा के नाम पर
एसी लगे बैठकों को,
विदेश की यात्राओं को,
नक्सलियों से साँठगाँठ को,
कभी न पूरी होने वाली घोषणाओं को,
अमर्यादित आचरण को,
पाले हुए बाहुबलियों को नमस्कार है

जनता का,
जनता के लिये,
जनता के द्वारा
नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है
०००००००००००००

शनिवार, 2 जनवरी 2010

ललित निबंध : नया कलेवर

वह एक गहरी नींद से जगा था । नींद भी कोई ऐसी वैसी नहीं थी । बेहोशी या समाधि । दोनों या कोई नहीं । वह कब सोया था ? कितने अंतराल के बाद जागा ?, उसे नहीं पता । समय काल, जिसकी गोद में यह सारा आडम्बर का अस्तित्व फलता फूलता , खेलता कूदता है, स्वयं में अस्तित्वहीन हो गया था । वह तो यह भी नहीं जानता कि इस लम्बी निद्रा को सोनेवाला कौन था । ऐसे जैसे निद्रा स्वयं सो रही थी । सोना भी सत्य था , जागना भी सत्य है । द्वैत, अद्वैत, एक, अनेक, लघु , बृहत, उत्तम , मध्यम , अन्य , इनमें से किसी में भी वह अपने आप को नहीं पाया । पहले सुसुप्ति थी अब चैतन्यता है , बस ।
अब जबकि वह जाग गया है , अपने आप को पहचानने में असमर्थ है । उसकी पहचान ही खो गई है ।यह जागरण भी क्या ? जागरण और निद्रा का प्रभेद करना कठिन है । अपने होने को , अस्तित्व की अनुभूति को वह जागरण मान रहा है । उस गहन निद्रा में उसने बहुत कुछ खोया है। पहले तो उससे उसकी इयत्ता खो गई । नाम, रुप, स्थूल या सूक्ष्म कुछ भी तो नहीं है । उसका लिंग क्या है । वह नर है कि मादा । उसकी किस जाति का है । गोरा है कि काला । उसकी भाषा कौन सी है । वह लम्बा है कि ठिगना । पहचान के सारे ही कारक बिलुप्त हैं । वह है और नहीं है के बीच झूल रहा है । उसकी स्मृति भी तो कोरे कागज की तरह शून्य हो गई है । स्मृति के खोने से उसका और काल का सम्पर्क ही मानो टूट गया है । स्मृति का आधार भी तो काल ही है । काल के अनस्तित्व हो जाने की स्थिति में स्मृति की संभावना स्वयमेव शून्य हो जाती है । पिछला या अगला कुछ भी तो नहीं है उसके पास । शून्य , शून्य , महाशून्य ।
उसकी चैतन्यता जैसे जैसे बढ़ती गई, उसका अभाव भी बढ़ता गया । उसने अपने आप को एक नितान्त ही अचीन्हे , अनजान जगह पर पाया । उसे समझ में ही नहीं आया कि इसे क्या कहें ? यदि वह धरती पर है तो यह कौन सी जगह है ? उसकी अवस्थिति ब्रम्हाण्ड में कहाँ है ? आकाशगंगा के किस छोर पर ? उसके लिये निश्चय कर पाना कठिन हो गया । यहाँ तो न रंग है ,न रुप है, न आकार है न विस्तार है, न आधार ही है । सभी दिशाओं में केवल एक शून्य । फिर दिशाऐं भी कहाँ हैं ? कहीं वह कुछ होने, न होने के उस पार तो नहीं पहुँच गया है ,जहाँ कुछ न होकर भी बहुत कुछ होता है ।
उसे अकुलाहट होने लगी । एक अजब व्याकुलता ने उसे घेर लिया । वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वह चाहता क्या है । चाहने की बात सामने आते ही उसे पता चल गया कि उसके पास तो अपना शरीर भी नहीं है । शरीर........। नहीं है । पर वह है । यह कैसी माया ? वह चमत्कृत हो गया । क्या ऐसा भी संभव है कि शरीर न हो पर वह हो । फिर "मैं हुँ कौन" ? और इस प्रश्न में जैसे वह पूरा का पूरा समा गया । उसका अंगहीन अस्तित्व ही प्रश्न में बदल गया । उसके भीतर, उसके बाहर, अबतक जो एक महाशून्य था, । वह "मैं कौन हूँ?" प्रश्न बन गया ।
अचानक ही उसे द्वैत स्थिति का भान हुआ । उसका आकर्षण हुआ और वह धरती पर आ गया । उसे धरती पहचानी सी लगी । अब वह जाना कि वह धरती पर न होकर कहीं और था । पर कहाँ ? पहले तो एक ही प्रश्न था "मैं कौन हूँ?" । अब और प्रश्न जुड़ गये थे । वह कहाँ था? । वहाँ कब से था? । वहाँ क्यों था? । उत्तर विहिन अन्तहीन प्रश्नों की श्रृखला । उसे कई युगनद्ध जोडे दिखे । केली कौतुहल में रत स्वश्थ नर मादा । सृजन का उपक्रम । नवीन संरचना। कोमल । नव पल्लव । विकास का यशोगान । सब कुछ संमोहक । वह स्वयं को उनके पास से गुजरता पाया । जोडों के पास आते आते उसका उच्चाटन हो जाता और वह आगे बढ़ जाता । एक प्रवहमान धारा की तरह क्रमानुसार । पता नहीं यह कार्य व्यापार कितने काल पर्यंत चलता रहा । अनायास ही एक जोड़े में उसका आकर्षण हुआ और विना किसी व्यवधान के वह उनमें समा गया । अब वह पायेगा नया कलेवर । सर्व सक्षम । क्रिया, कर्म, कतृत्व शक्ति के साथ । यही तो है ब्रम्हानन्द की परम अनुभूति । और फिर, एक और लम्बी गहन निद्रा...............................।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

बस्तर पर तीन कविताएँ

1
जनमानस
उद्वेलित है

पहले
सरकार,
गैर सरकारी संस्थाएँ,
साहूकार
उनके विकास के लिये
कृत संकल्पित थे
अब उन्हें
नक्सलियों के छॉंव तले
विकास करना है

बाप
पहले के साथ है
बेटा
नक्सलियों के साथ
और
मॉं बेटी सलवाजूडूम केम्प में ।

अब तो
उन्हे भी पता चल चुका है
विकास तो उन्हें करना ही होगा
चाहे धरती पर
चाहे स्वर्ग में
………………………………
2
भय
पहले भी नहीं था
उनके जीवन में
अब भी नहीं है

पहले
जंगल में
जिस जिस को
बाघ मिला
वह अपना अनुभव बॉंटने
गॉंव नहीं लौटा
आज जो
अपना दुख भी जाहिर करता है
गॉव में
उसे नक्सली मिलते हैं
अपने ही पहरावे में
अपनी ही भाषा बोलते हुए

अब उन्हें न बाघ से भय है
और
न नक्सलियों से
क्योंकि
वे जान गये हैं
दोनो क्या करते हैं
………………………
3
मेरे भीतर
एक बडा सा पोस्टर टंगा है
जिसमें लिखा है
“बस्तर जाना व्यर्थ है”

सरकारी योजनाएँ
चल नहीं पातीं
अपन तो बालबच्चेदार हैं
घर गृहस्थी कैसे चलेगी ।

आदिवासी सौन्दर्य
किसी कीमती कैमरे में
टापलेस
कैद होने के लिये
अप्रस्तुत हैं
घोटुल का
अघोषित रूप से
सरकारीकरण हो चुका है
अपन तो कलाकार हैं
रंग, व्यापार कैसे चलेगा ।

मेरा जी तो करता है
पोस्टर को
सबकी जानकारी के लिये
बस्तर जाने वाली सडक पर
बीचों बीच
टॉंग दूँ ।
……………………………

रविवार, 29 नवंबर 2009

परियों का देश थाईलैंड







कहते हैं पुरानी पीढ़ी का अनुभव नई पीढ़ी के लिये कथा कहानी या गल्प से अधिक मायने नहीं रखती । वर्तमान का खट्टा मीठा स्वाद सजीव होता है, जबकि भूत जो वर्तमान के काँधे चढ़कर आता है, सूचना बनकर सरोकारों तक बिखरता तो है पर उसमें ताजे फूल की खुशबू नहीं होती । इसे हम चाहे दो पीढ़ीयों का सहज अंतर कहें या कि विकास यात्रा की स्वाभाविक परिणति । ज्ञान सदैव अनुभूति सापेक्ष ही होता है, हालाँकि चेतना के लिये अनुभूति भी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रेषित सूचना ही होती है ।



थाईलेण्ड को मैंने अप्रत्याशित रुप से वर्तमान में पाया । आधुनिकता का जो रंग उस पर चढ़ रहा है वह आश्चर्यजनक है युवा सामने हैं , बुजूर्ग ओझल हैं । पुरातन लोहे से भी अधिक मजबूत सागौन लकड़ी निर्मित छोटे छोटे घर नदारत हैं, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ विखरी पड़ी हैं, । आधुनिकता की चमक, दमक , आज के बाजार से आकर्षित जीवन शैली और नील गगन में उँचाई पर उड़ते पंक्षी के तरह की उन्मुक्तता थाईलेण्ड के निवासियों के तन और मन दोनो में गहराई तक समायी हुई है । भगवान तथागत यहाँ के प्राणों मे बसे थे , अब मंदिरों तक सीमित रह गये हैं, या फिर उन्होंने गैरिक वस्त्रों में यदा कदा ही प्रकट हो पाने वाले भिक्षुओं की सीमा में रहना सीख लिया है । उनकी शिक्षाएँ मंदिरों के गर्भगृहों में भविष्य के लिये जब देश निकट अतीत की गरीबी और निशक्तता से उबर जायेगा, सुरक्षित रख लिये गये हैं । पुरुष वर्ग निर्यातोन्मुख कल कारखानो की दिनोंदिन बढ़ती इकाईयों में खप गया है और महिलाएँ पर्यटन उद्योग की निरन्तर बढ़ती आवश्यकता के अनुरुप सेवा के हर क्षेत्र में अपने गौरवर्णीय छबि और चेहरे पर हर समय खेलती मंदस्मित लिये सन्नद्ध हो गई हैं । इस क्रियाकलाप में शरीर को भोग की वस्तु के रुप में परोसकर अपनी आर्थिक सुरक्षा को और अधिक पुख्ता करने में किसी नैतिक बंधन को अस्वीकार करने में उन्हें कत्तई भी हिचक नहीं होती । यह सब कुछ यहाँ के स्त्री वर्ग के लिये सहज रुप में स्वीकार्य है । स्त्री सुलभ लाज की लाली यदा कदा आकर्षण को और अधिक प्रभावी करने की भंगिमा के रुप में उभरते दिखती है , अन्यथा इनका निर्विकार चेहरा उनके किसी मशीन की तरह की संलग्नता को प्रदर्शित करती है ।



पहली बार में तो भारतीय मानस, जिसमें मर्यादा, नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता और आदर्शों की छाप पीढ़ी दर पीढ़ी उतरती आ रही है , थाईलेण्ड जाकर अचम्भित हो जाता है । उसका वर्जनाओं में जीने वाला मन एकाएक उन्मुक्त होने में संकोच का अनुभव करता है । हालाँकि उन्मुक्तता का अपना अलग स्वाद और आकर्षण है जो आखिरकार उसे उसके संकोच से बाहर ले ही आती है । उँची उँची अट्टालिकाएँ, मीलों लम्बी फ्लाईओवरों और जाम में फंसी विदेशी कारों की लम्बी कतारें विकास के पथ पर दौड़ती अर्थव्यवस्था का भान कराती हैं, परन्तु जब विदेशी निवेश और सैलानी आधारित अर्थतंत्र के चमक दमक का तथ्य सामने आता है, तथाकथित विकास का पोल खुलती दिखती है । लगता है थाईलेण्ड के पास खेत खलिहान, आकर्षक समुद्री तट और सुन्दर, आमन्त्रण देती थाई देह की ही पूंजी है ।



थाईलेण्ड का ज्ञात इतिहास मात्र ७५० वर्षों का ही है । उसके पहले लगभग अंधकार युग था । इस देश में भगवान बुद्ध का संदेश इसी अंधकार युग में आया और फैला था । भारतीय संस्कृति के अवशेष भी जहाँ तहाँ आज भी दिखलाई पड़ जाते हैं , परन्तु शायद थाई वासियो को अब इसका ज्ञान नहीं रहा । आज तो भगवान बुद्ध थाई हैं और भगवान राम भी थाई हैं । थाईलेण्ड में अयोध्या । अयुधाया । नामक एक शहर है, जो अतीत में इस देश की राजधानी रही है । भारत में हों या न हों पर यहाँ के राजा आज भी राम ही हैं । वर्तमान राजा नौवे रामा कहे जाते है ।



अपने अतीत से, इतिहास से कटकर किसी समाज या राष्ट्र की क्या दुर्दशा होती है ? थाईलेण्ड इसका जीवंत उदाहरण है । इस देश की इस अवस्था के लिये अन्य कारकों में ब्रिटिश, फ्रेंच, डच और अमरीकियों द्वारा किया गया आर्थिक और सामाजिक शोषण रहा है । अमरीकियों ने तो इस देश के निवासियों का दैहिक शोषण कर इनको नैतिक अवमूल्यन के गहरे अंधे कुएँ में धकेल दिया, जहाँ से संसार दिखना बंद हो गया और इन्होने अपनी स्थिति से समझौता कर इसे ही सच मान लिया । भगवान जाने नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना इस देश में कब हो पायेगी, या कि हो भी पायेगी कि नहीं । कुछ कहा नहीं जा सकता भविष्य के आँचल में क्या छुपा है । हाँ यह जरुर है, आज इस देश ने अपनी निशक्तता, जिसके कारण अपनी महिलाओं को अमरीकी दैहिक शोषण से नहीं बचा पाये थे , को इन्होने अपना हथियार बना लिया है और उन्हीं अमरीकियों को काम जाल में फाँस कर अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारते हुए उनमें नैतिक अवमूल्यन का बीज बो रहे हैं इस फाँस में भारतीय सैलानियों का उलझना अवश्य ही चिन्ता का विषय है



दक्षिण पूर्वी एशिया के इस छोटे से देश के निवासियों का रंग युरोपियन गोरेपन से उन्नीस ही बैठता है । कद काठी में इनकी गणना सामान्य से कुछ छोटे कद की ही की जायेगी । सन्तुलित देह और मीठी जुबान इनकी सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है । आम कामकाजी स्त्रियाँ आकर्षित तो करती ही हैं और जब श्रृँगार व परम्परागत नृत्य की वेशभूषा में ये मँच पर उतरती हैं तो परियों से कम नहीं लगतीं । एक बात जरुर अनुभव होती है, वह है थाई सुन्दरियों के तरकस में कामदेव के वाणों की अनुपस्थिति । ये आकर्षित तो करती हैं परन्तु घायल नहीं करतीं । ये न तो कटाक्ष के तीर चलाने!मारने में उस्ताद हैं और न रुपगर्विता के से भाव रखती हैं ।



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रविवार, 11 अक्तूबर 2009

तुम्हारा नाम

फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम ।

बहककर है आ गया
मेरे दुआरे
अन्य बागों से मधुर मलयी पवन
बिछ रहे पथ में
अतुल विश्वास लेकर
किस अदेखे ताल से ये
भीगकर आये नयन ।

हर सुलगते शब्द ने
आकर किया है
फिर मुझे बदनाम ।


फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम ।

दूर शाखों में बसी
वह गंध
भरमाती रही है
बंद पलकों में
तुम्हारी याद
तरसाती रही है
इक सुखद अहसास है
सालता
मुझको अजाना
अधजनी अनुभूतियों में
आस
ललसाती रही है ।

अ नियंत्रित
पग कसकते
चाहते विश्राम ।

फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम ।
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रविवार, 4 अक्तूबर 2009

बाजार से डरना मना है

आज बाजार के साथ वाद शब्द जुड़कर एक बिल्कुल ही नये अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है । बाजारवाद शब्द में जिस दार्शनिक गंभीरता का पुट होना चाहिये , वह नदारत है । मुझे बाजारवाद के पक्ष में खड़ा कोई नहीं दिखता । सब के सब बिपक्ष में हैं । प्रजातन्त्र के इस युग में महर्षि चार्वाक जैसा सत्यवादी , निर्भीक, पक्षधर, का होना बाजारवाद के लिये शुभ होता । ऐसा नहीं है कि चार्वाक जैसा पक्षधर का होना बाजारवाद के लिये कोई शक्तिदायी स्थिति निर्मित करता या नहीं होना उसे किसी भी रुप में कमजोर करता है । होता यह कि बाजारवाद की पहचान के पश्चात जो संभ्रम की स्थिति निर्मित हुई है । वह साफ हो जाती । दृश्य उजला होता तो आज जो बाजारवाद के नाम से भय का संचार होने लगता है, उसमें निश्चय ही कमी आती । भय के कारण तनावग्रस्त हो रहे विवेकवान व्यक्ति भी संयमित होकर बाजार को नजदीक से परखते । उसके गुण दोषों की व्यापक समीक्षा होती । विरोध का आर्तनाद जो आज सुनाई पड़ रहा है उसका सुर बदलता, क्योंकि इस नपुंशक विरोध का कुछ भी तो असर बाजारवाद पर नहीं पड़ रहा । वह तो उस हाथी की तरह झूमता, झामता मंथर गति से आगे बढता चला जा रहा है, जिसे सुरापान करा दिया गया हो और जिसका कोई महावत कभी था ही नहीं । अंकुश से सर्वथा अपरिचित ।
बाजार में आयी यह जवानी जो आज उफान पर दिखती है, यह इसका सर्वथा नया रुप है । बाजार कभी भी इतना व्यापक नहीं था। यह स्वच्छंद भी नहीं था । इसकी सीमा थी । यह सैकड़ों बरस तक समय, काल, स्थान, क्षेत्र आदि से बंधा हुआ था । साप्ताहिक हाट एवं वार्षिक मेला लम्बे समय तक बाजार के रुप में स्थापित रहे हैं । लेकिन यह उस समय भी अपने प्रति ललक पैदा करने में सक्षम हुआ करता था । इसे देखने, छूने, और इसके साथ तादात्म्य स्थापित करने की इच्छा से हर उम्र के लोग बाजार में आते थे । जवानी की दहलीज पर पाँव रखती कुमारियाँ जिनमें अपने सौंदर्य का अहसास बोध कुलबुलाने लगता था, अपने रुप को संवारने, सजने धजने के सारे उपकरण बाजार से ही प्राप्त करती थीं । वे बाजार आते जाते स्थापित मूल्यों की अनदेखी कर नदी,नालों, जंगल, या पर्वतों की सुरम्य उपत्यकाओं में थोड़ा बहुत प्रेमरस का पान कर लेने की छूट भी ले लिया करती थीं । इस प्रेमरस में दैहिक सुख का भी समावेश समय, काल, परिस्थिति के अनुसार हो जाया करता था । उनके लिये तो बाजार जाना मानो स्वप्नलोक की यात्रा से किसी भी प्रकार से कम नहीं होता था । कभी कभी तो लोग खुशी खुशी पंदरह, बीस किलोमीटर चलकर आते थे । बाजार के साथ हमेशा से एक बात बड़ी अच्छी है , यह अपने पास आने वाले को कभी निराश या दुखी नहीं करता । क्रेता, विक्रेता, दर्शक, आयोजक, पास पड़ोस, सरकार , मजदूर, किसान , अमीर, गरीब , देशी विदेशी सभी खुश ।
बाजार की संभावनायें अनन्त हैं । यह जिस तेज गति से विस्तृत होते आज दिखती है , उससे तो इसे धरती में अपनी चतुर्दिक उपस्थिति दर्ज कराने में न जाने कितना समय लग जाये । यह अलग बात है कि बाजार के लिये किसी बंधे हुये समय के भीतर एक पूर्वनिश्चित लक्ष को उपलब्ध करना आवश्यक नहीं है । बाजार का सर्वभक्षी उदर अभी बहुत खाली है । उसे उदर भरण की क्रिया तो जारी रखनी ही है । कोई क्या सोचता है , क्या मानता है और क्यों ! उसे कोई मतलब नहीं है । बाजार में मानवीय संवेदना की कल्पना करना भी हास्यास्पद है ।
जैसे जैसे बाजार व्यवस्थित एवं संगठित होता जा रहा है , इसकी आक्रामकता में भी बृद्धि होती जा रही है । कमोवेश इसने सभी क्षेत्रों में , सभी आयु वर्ग को छुआ है । इसकी भंगिमा तो अखिल ब्रम्हाण्ड के समस्त चेतन प्राणियों को अपने आकर्षण के जाल में उलझा लेने का दिखता है । इसने पहले तो धरती की भोली भाली युवा होती कुमारिकाओं में से कुछ को चुनकर उनके मन को कुछ इस तरह से प्रोग्रामिंग किया कि वे स्वयं को उर्वशी और मेनका समझने लगीं । उनके सिरों पर विश्व सुन्दरी, ब्रम्हाण्ड सुन्दरी का ताज भी रखा, और उनको सम्मोहन बिखेरते हुए लोगों को बाजार के आकर्षण में बाँधने का काम सौंप दिया । समाज का हर सफल व्यक्ति चाहे वह नायक हो कि खलनायक, नेता हो कि अभिनेता, बाजार जाने के लिये प्रेरित करता दिखता है । इतना आकर्षण, इतना आत्मीय आमंत्रण चारों दिशाओं से आ रहा है, इतनी रंगीनियाँ, इतना चमक, दमक आसपास चारों ओर विखरा पड़ा है कि कोई कैसे खुद को रोके।
बाजार मानव की इच्छापूर्ति में मरखप रहा है । इसने ऐशोआराम के तमाम साधन उपलब्ध करा दिये हैं । बस मानव को स्वयं को बाजार के अनुकूल ढालने भर की देर है, और फिर वह दिन दूर नहीं कि मानव की पलकें भर इशारा करेंगी और उसकी इच्छापूर्ति हो जाया करेगी ।
बाजार के यौवन के साथ साथ वर्जनाओं के टूटने का सिलसिला चल पड़ा है । सबसे पहले तो इसने सौंदर्य की परिभाषा बदल दी । नारी में लज्जा और सुंदरता का जो पुरातन सम्बन्ध था समाप्त होता दिखता है । शरीर प्रदर्शन अब कला का विषयवस्तु हो गया है । फिर इसने तोड़ा परिवार संस्था को । घर तोड़कर भोजन और आराम प्राप्त करने का साधन मात्र बनाने में इसे ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ा । हाँ यह जरुर है कि भगवान, गाड,खुदा के अस्तित्व पर शंका तो इसने पैदा कर ही दिया है, पर विश्वास ,आस्था खतम करने में इसे अतिरिक्त मशक्कत करनी पड़ रही है । हो सकता है आने वाले दिनों में बाजार ईश्वर का पर्याय बन जाये । यह होनी है इसे कौन टाल सकता है ।
साँस्कृतिक तोड़फोड़ की कारस्तानियाँ अभी महानगरों तक ही सीमित है । मझोले और छोटे शहर तथा गाँवों में माहौल बिगड़ने के लिये तैयार हो चुका है । पब , बार , एमएमएस, डाँस, आदि की जानकारी से कोइ भी अछूता नहीं रह पाया है । इलेक्ट्रानिक मिडिया, समाचार पत्रों आदि से चाहे या अनचाहे इसका फैलाव लगातार जारी है । देखें गाँवों तक बाजार की पहुँच कब होती है ।
बाजार के पाँव पसारने के पहले भी ईश्वर के अस्तित्व के प्रति शंकाएं थीं । रुढियों , अंधविश्वासों से मुक्त होना सभी चाहते थे । ऐशोआराम के साधनों के प्रति सबके मन में ललक थी । स्वच्छंद होना , नियमों की अवहेलना करना, कमोवेश सभी चाहते थे । परन्तु चाहना एक चीज है और होना एकदम दूसरी । प्रत्येक इच्छा पूर्ण हो यह जरुरी तो नहीं । अब जब चाही हुई बातों को बाजार वास्तविकता का धरातल प्रदान कर रहा है तो फिर भय कैसा । बाजार का भी तो हम उसी प्रकार का विरोध कर रहे हैं, कि हमारा विरोध भी रहे और बाजार भी रहे ।
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सोमवार, 28 सितंबर 2009

जीओ और जीने दो


मानव अधिकारों में जीवन का अधिकार मेरे विचार से प्राथमिक अधिकार है । यदि मानव जीवित रहेगा तभी अपने अन्य अधिकारों का उपभोग कर सकेगा । मुर्दे के अधिकार में तो केवल नष्ट होना ही होता है । देश में सुरक्षा का माहौल जो आज दिखाई देता है और जन साधारण का आत्मरक्षा के मामले में जो रवैया है, मुझे नहीं लगता कि आज कोई भी सुरक्षित है । हमने अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकारी सुरक्षा तंत्र के हाथों में सौंप दी है और हमारे पास एक ही काम है, सुरक्षा तंत्र की असफलता की आलोचना करना । बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि हम एक ओर तो सुरक्षा तंत्र को अकर्मण्य, निकम्मा, लापरवाह, और भ्रष्ट मानते हैं और चाहते हैं कि उन्ही की बदौलत हम सुरक्षित भी रहें । यह असंभव सी बात नहीं है क्या?
सुरक्षा तंत्र पर हमारी नाराजगी के कई कारण हैं । हम समझते हैं किः
१, वे घटना या दुर्घटना घटित होने के बाद, बुलाने पर आते हैं, वह भी ज्यादातर बिलम्ब से ।
२, वे अपराधी को ज्यादातर मामलों में पकड़ नहीँ पाते ।
३, उनका अपराधियों से साँठगाँठ रहता है ।
४, ज्यादातर भ्रष्ट होते हैं, बिना लिये दिये काम करना नहीँ चाहते ।
५, उनका व्यवहार अपमानजनक होता है ।
६, वे अपराध होते समय यदि मौके पर होते हैं तो ज्यादातर अनदेखा कर देते हैं या वहाँ से दूर हट जाते हैं ।
७, सज्जन और निर्दोष व्यक्ति अक्सर प्रताड़ित किये जाते हैं ।
इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैँ।
चूँकि विषय हमारे जीवन से जुड़ा है, अतः गंभीर चिन्तन की माँग करता है । हमारे जीवन के अधिकार को चुनौती देने वाले सभी कारकों की हमें पहचान करनी होगी और उन कारकों को नष्ट करने के सभी उपाय करने होंगे । ये उपाय व्यक्तिगत, सामाजिक, प्रशासनिक और वैश्विक स्तर के हो सकते हैं ।
व्यक्तिगत उपायों में स्वयं की सुरक्षा के प्रति सजग होना तथा अन्य किसी व्यक्ति के असुरक्षा का कारण नहीं बनना होना चाहिये ।
सामाजिक उपायों में समाज में सुरक्षा के प्रति जागरुकता का वातावरण बनाना होगा । समाज के अंग के रुप में हम सबका यह दायित्व है कि जब, जहाँ, जैसा मौका हो हम अपना तथा अपने आसपास के लोगों की सुरक्षा हेतु प्रयत्न करें । हमारी जागरुकता एवं एकजुटता हमारी बचाव करेगी ।
प्रशासनिक उपायों में सुरक्षा तंत्र पर निर्भरता कम करना तथा आपसी सहयोग बढाना होना चाहिये । सुरक्षाकर्मी भी समाज के अंग हैं । समाज में व्याप्त बुराईयाँ स्वाभाविक रुप से उनमें भी हैं। मानव की जो सीमाऐं हैं उसके अंदर ही वे भी सीमित हैं अतः उनकी सफलता, असफलता भी सामाजिक अच्छाई या बुराई के अनुरुप ही होगी । उन्हें अपने से अलग मानकर उनकी आलोचना करना उनके मनोबल को प्रभावित करेगा जो हम सभी के हित में नहीं है ।
वैश्विक उपायों में राज्य की भागीदारी होती है, जिसे प्रभावित करना वैचारिक क्रांति के रुप में ही संभव है ।
सार यह है कि जीवन का अधिकार मानव मात्र का अधिकार है । इस तथ्य को सभी को स्वीकरना होगा तथा तदनुरुप आचरण भी करना होगा ।